خلاصه ماشینی:
آخر الکلام : الأقنعة المتفسخة إیفا علویّة ناصر الدین یُمکن للإنسان أن یضع علی وجهه القناع الذی یرید.
یمکن له أن یُخبئ خلف إشراقة ملامحه الزاهیة، سرادیب من العتمة المدلهمة التی تُطبق بسواد أجفانها علی سماء وجدانه.
یمکن له أن یخبئ خلف نظرة عینیه الوادعة، شرارت دفینة تتأجج بنار الکره والحقد والحسد والبغضاء.
یمکن له أن یخبئ خلف حلاوة لسانه، براکین تتفجر أحشاؤها بحمم الکذب والغیبة والنمیمة.
یمکن له أن یخبئ خلف أناقة هندامه وجمال طلته البهیة ، شبح نفسه الهزیلة فی ثیابها البالیة والممزقة.
یمکن له أن یخبئ خلف ابتسامته الناصعة، أنیاباً ضاریة لوحش ذی مخالب فتاکة مستوطن فی أعماقه.
یمکن له أن یخبئ خلف رقرقة أفکاره الوضّاءة، سیولاً جارفة متدفقة فی متاهات الحیرة والضیاع.
یمکن له أن یخبئ خلف ظلال علمه الوارفة وسعة معارفه، صفحات تتقلب فی ثنایاها آفات الجهل والأمیة.
یمکن له أن یخبئ خلف لباس إیمانه، روائح النتن التی تفوح من مستنقع رذائله.
یمکن له أن یخبئ خلف ستار ورعه وتقواه، شوقاً متیماً إلی طلب الدنیا والنهل من ملذاتها بدون حساب.
نعم، یمکن للإنسان أن یلبس القناع الذی یرید، وأن یرسم بریشته المظهر الذی یرید، ویمکن له أن یخدع الجمیع.
لکن، لا یمکنه أن یخدع نفسه الجاثمة تحت القناع، لا یمکنه أن یخبئ عنها الحقیقة، لأنها هی حقیقته.
کذلک، لا یمکنه أن یخدع إلهه الذی أنَظَره لیوم الحساب، فهناک تنهار کل الأقنعة وتتفسخ .
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